एक ऐसे मकाँ में ठहरे हैं जिस के बाहर अना के पहरे हैं शाम पंछी कहाँ गुज़ारेंगे शाख़-ए-गुल पर जले बसेरे हैं हम तो मलबा हैं ना-शनासी का टूटे-फूटे से चंद चेहरे हैं आज बाँटी है धूप सूरज ने अपने दामन में क्यूँ अँधेरे हैं जाल टूटे मिले हैं साहिल पर कौन जाने कहाँ मछेरे हैं