एक अजीब राग है एक अजीब गुफ़्तुगू सात सुरों की आग है आठवीं सुर की जुस्तुजू बुझते हुए मिरे ख़याल जिन में हज़ार-हा सवाल फिर से भड़क के रूह में फैल गए हैं चार-सू तीरा-शबी पे सब्र था सो वो किसी को भा गया आप ही आप छा गया एक सहाब-ए-रंग-ओ-बू हँसती हुई गई है सुब्ह प्यार से आ रही है शाम तेरी शबीह बन गई वक़्त की गर्द हू-ब-हू फिर ये तमाम सिलसिला क्या है किधर को जाएगा मेरी तलाश दर-ब-दर तेरा गुरेज़ कू-ब-कू ख़ून-ए-जुनूँ तो जल गया शौक़ किधर निकल गया सुस्त हैं दिल की धड़कनें तेज़ है नब्ज़-ए-आरज़ू तेरा मिरा क़ुसूर क्या ये तो है जब्र-ए-इर्तिक़ा बस वो जो रब्त हो गया आप ही पा गया नुमू मैं जो रहा हूँ बे-सुख़न ये भी है एहतिराम-ए-फ़न यानी मुझे अज़ीज़ थी अपनी ग़ज़ल की आबरू