इक बूँद थी लहू की सर-ए-दार तो गिरी By Ghazal << उल्फ़त-ए-आरिज़-ए-लैला में... जल गईं आँखें सभी ख़ुश-रंग... >> इक बूँद थी लहू की सर-ए-दार तो गिरी ये भी बहुत है ख़ौफ़ की दीवार तो गिरी कुछ मुग़्बचों की जुरअत-ए-रिंदाना के निसार अब के ख़तीब-ए-शहर की दस्तार तो गिरी कुछ सर भी कट गिरे हैं प कोहराम तो मचा यूँ क़ातिलों के हाथ से तलवार भी गिरी Share on: