एक इक गाम पे पथराव हुआ है मुझ में सिलसिला ग़म का बहुत दूर चला है मुझ में इतना फैला हूँ सिमटना ही पड़ेगा शायद कोई शिद्दत से मुझे ढूँड रहा है मुझ में अश्क टपके तो कोई राज़ की तहरीर मिली और क्या क्या नहीं मालूम लिखा है मुझ में गूँजता रहता हूँ मैं कोई सुने या न सुने भूली-बिसरी हुई यादों की सदा है मुझ में होगी ज़ाइल न कभी मेरे नफ़स की ख़ुश्बू ग़म तिरा ऊद की मानिंद जला है मुझ में ताक़-ए-निस्याँ पे दिया किस ने ये रख छोड़ा है एक मुद्दत से जला है न बुझा है मुझ में एक मंज़र भी न देखा गया मुझ से 'काविश' सारे आलम को कोई देख रहा है मुझ में