इक ग़ज़ल तो मिरे हाथों से मिसाली हो जाए काश के तू मिरा महबूब-ए-ख़याली हो जाए देख ले तू मिरी जानिब जो उठा कर नज़रें चश्म-ए-पुर-नम जो तिरी है वो ग़ज़ाली हो जाए चाँद से रुख़ पे जो फिरते हो लगा कर गॉगल ईद कर ले न कोई कुछ की दीवाली हो जाए सामने उस को मैं रखता हूँ ग़ज़ल कहता हूँ जब इस ग़ज़ल-गोई की नक़्क़ाली पे ताली हो जाए दिल में तू है मिरे आयत की सी पाकीज़ा पर ये दुआ कर मिरी निय्यत न जमाली हो जाए ख़ैर से अपना ये नेता भी है बेहिस वर्ना शक्ल जो उस की है चमकीली वो काली हो जाए अब भी हो सकती है ईमान की रौनक़ 'अज़हर' इक अज़ाँ फिर जो अँधेरों में बिलाली हो जाए