इक इज़्तिराब सा सीने में हर घड़ी है मुझे ठहर ऐ ज़िंदगी इक बात पूछनी है मुझे इधर से जब भी गुज़रना हो तो पुकारा कर अँधेरे में तिरी आवाज़ रौशनी है मुझे अजीब तरह की तन्हाई है मिरे घर में हर एक चीज़ उदासी से देखती है मुझे मैं अब तो कश्ती-ए-जाँ में सवार हो चुका हूँ सो देखिए कहाँ ले जा के छोड़ती है मुझे मुझे बता जो कभी लौटता हो गुज़रा वक़्त कि फिर से तुझ में वही बात देखनी है मुझे मैं उस से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ तो कर भी लूँ लेकिन न जाने कौन सी उम्मीद रोकती है मुझे मैं अपने टूटते घर की हूँ आख़िरी उम्मीद सो इश्क़ भर नहीं हर बात सोचनी है मुझे