एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया मैं ये समझा भूलने वाले को मैं याद आ गया उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया ऐ ज़मीं तुझ को मोहब्बत से बसाने के लिए आसमानों की बुलंदी से मुझे फेंका गया इंक़िलाब-ए-दहर बर-हक़ लेकिन ऐसा इंक़लाब वो कहीं पाए गए और मैं कहीं पाया गया आईना दिखलाने आए थे परेशानी के दिन था मिरा चेहरा मगर मुझ से न पहचाना गया आप ने अपनी ज़बाँ से जिस को अपना कह दिया वो दिवाना हर जगह खोया हुआ पाया गया ख़ैरियत क्या पूछते हो गेसू-ए-हालात की वक़्त ही उलझा गया था वक़्त ही सुलझा गया उस तरफ़ जाते हुए अब दिल दहलता है 'नज़ीर' ज़िंदगी में जिस तरफ़ से बार-हा आया गया