एक क़दम तेग़ पे और एक शरर पर रक्खा मेरी वहशत ने मुझे रक़्स-ए-दिगर पर रक्खा मेरे मालिक ने तुझे आइना-दारी दे कर निगराँ तुझ को मिरे हुस्न-ए-नज़र पर रक्खा ला-तअल्लुक़ नज़र आता था ब-ज़ाहिर लेकिन शहर को उस ने मिरी ख़ैर-ख़बर पर रक्खा ज़िंदगी तू ने क़दम मोड़ दिए और तरफ़ और अंदर से मुझे और सफ़र पर रक्खा अहल-ए-वहशत को मगर कौन बताता जा कर हो गया नाफ़-ए-ग़ज़ालीं कोई घर पर रक्खा कोंपलें फूट पड़ीं दस्त-ए-दुआ से मेरे दम-ए-आमीन जो में दीदा-ए-तर पर रक्खा ख़त्म होती ही नहीं गिर्या-ओ-ज़ारी उन की मीर ने हाथ तो हर लफ़्ज़ के सर पर रक्खा मैं ने इस डर से उसे तोड़ लिया है 'ताबिश' सूख जाए न कहीं शाख़-ए-शजर पर रक्खा