इक क़ुर्ब जो क़ुर्बत को रसाई नहीं देता इक फ़ासला अहसास-ए-जुदाई नहीं देता इक तीरगी देती है बसारत के क़रीने इक रौशनी वो जिस में सुझाई नहीं देता इक क़ैद है आज़ादी-ए-अफ़्कार भी गोया इक दाम जो उड़ने से रिहाई नहीं देता इक आह-ए-ख़ता गिर्या-ब-लब सुब्ह-ए-अज़ल से इक दर है जो तौबा को रसाई नहीं देता इक शौक़ बड़ाई का अगर हद से गुज़र जाए फिर ''मैं'' के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता मत पूछिए चालाकियाँ मेरी कि मिरा ऐब अब अहल-ए-नज़र को भी दिखाई नहीं देता