एक मिस्रा हुआ अता मुझ को शेर तुझ पर कहूँ बता मुझ को रात भर जागने की आदत थी और फिर इश्क़ हो गया मुझ को ऐ शब-ए-ग़म कहीं ठिकाना कर इक वली ने है दी दुआ मुझ को तू कहीं राख ही न हो जाए इस तरह हाथ मत लगा मुझ को मौसम-ए-हिज्र जा ख़ुदा-हाफ़िज़ उस ने अपना बना लिया मुझ को दश्त-गर्दी मिरे वजूद में है क़ैस भी सोचता रहा मुझ को मेरे पहलू में आ के बैठ कभी ऐसा लम्हा भी कर अता मुझ को इस्तिराहत मिले समाअ'त को ऐसी आए कोई सदा मुझ को