इक परिंदा सर-ए-दीवार भी बाक़ी न रहा अब तो पर्वाज़ का दीदार भी बाक़ी न रहा हब्स ऐसा था कि साए में सुलग उट्ठे गुलाब लू चली ऐसी कि गुलज़ार भी बाक़ी न रहा लोग दम साध गए ख़ौफ़ ने घेरा ऐसे कोई अंदेशा-ए-बे-कार भी बाक़ी न रहा हादिसा क्या हुआ बिखरे हुए सन्नाटे में लफ़्ज़ से रिश्ता-ए-इज़हार भी बाक़ी न रहा एक वहशत ही मताअ-ए-ग़म-ए-जानाँ निकली लुत्फ़-ए-दिलदारी-ए-ग़म-ख़्वार भी बाक़ी न रहा जाँ सिसकती रही ख़्वाहिश के बयाबानों में शौक़-ए-हर-लहज़ा का आज़ार भी बाक़ी न रहा दिल भी यादों की कड़ी धूप में कुम्हला सा गया और कोई साया-ए-दीवार भी बाक़ी न रहा ऐसी वीरानी है ख़ुद मौत भी कतरा के चली कोई मरने का सज़ा-वार भी बाक़ी न रहा