इक तरफ़ वो फ़िक्र-ए-फ़र्दा ज़ेहन परछाई हुई इक तरफ़ ये ज़िंदगी यादों की ठहराई हुई लाख कोशिश की न बढ़ पाईं दिलों की रंजिशें पर कहाँ रुकती है शीशे में दराड़ आई हुई सर्द रातों की फ़ज़ा में गर्म रखती है मुझे शाल माँ के काँपते हाथों की पहनाई हुई ले उड़ी है तेरी साँसों की महक शायद हवा क्या सबब वर्ना कि यूँ फिरती है इतराई हुई वो ख़ुशी के रोज़-ओ-शब हों या कि 'शाकिर' ग़म का दौर कैफ़ियत वो ही भली है हो जो रास आई हुई