एक-दम ख़ुश्क मिरा दीदा-ए-तर है कि नहीं माजरे से मिरे तुझ को भी ख़बर है कि नहीं यूँ तो उठते है मिरे दिल से हज़ारों नाले लेकिन इन ख़ाना-ख़राबों में असर है कि नहीं हाल मेरा तुझे बे-दर्द नहीं गर बावर देख ले आ के कि अब नौ-ए-दिगर है कि नहीं मेरे घर क्यूँकि तू आवे कि गली-कूचों में तेरे मुश्ताक़ कहाँ और किधर है कि नहीं तुझ में बू पाई न मुतलक़ कहीं जिंसिय्यत की नस्ल-ए-आदम से तू ऐ शोख़ पिसर है कि नहीं बुल-हवस दिल को कर अपने ज़रा बस में 'हसरत' मर्द-ए-बे-सब्र तुझे कुछ भी जिगर है कि नहीं