एवज़ कब वफ़ा का वफ़ा माँगते हैं सलामत रहो ये दुआ माँगते हैं सदा-ए-फ़क़ीर और क्या होंगी ज़ालिम ख़ुदा से तिरा हम भला माँगते हैं ये छुप-छुप के शाम-ओ-सहर रोने वाले ये क्या चाहते हैं ये क्या माँगते हैं मिटा दे हमें ऐ मोहब्बत मिटा दे हम अपने किए की सज़ा माँगते हैं करम कर न जा हम फ़क़ीरों की ख़ू पर फ़क़ीरों का क्या है सदा माँगते हैं यूँही बन गया 'सोज़' दुश्मन ज़माना कि हम कब किसी का बुरा माँगते हैं