ज़िंदा रखनी है मुझे इज्ज़ के मेआ'र की धुन एक संदेसा है ये हुक्म से इंकार की धुन तू पलट आ कि तुझे मेरी ज़रूरत पड़ेगी तुझ को ज़िंदा नहीं छोड़ेगी ये बे-कार की धुन दोस्त मंसूर से होती हुई हम तक पहुँची हक़ की आवाज़ पे डट जाते हुए दार की धुन आप आते हैं चले जाते हैं मिलते ही नहीं दिल में रह जाती है हर बार ही इज़हार की धुन ऐ ख़ुदा इज़्न मिले तेरी तरफ़ आने का कितनी बेताब है अब तेरे गुनहगार की धुन शहर छोड़ा है तिरे इश्क़ की वहशत के सबब जाने ले जाए कहाँ अब दिल-ए-बीमार की धुन