फ़क़ीर मौजी ख़राब हालों का क्या बनेगा ये इश्क़ करती उदास नस्लों का क्या बनेगा हमारे पुरखों ने हम से बेहतर गुज़ार ली है मैं सोचता हूँ हमारे बच्चों का क्या बनेगा हमारे जिस्मों का ख़ाक होना तो ठीक है पर तुम्हारी आँखों तुम्हारे होंटों का क्या बनेगा हमें तो रोने में कोई दिक़्क़त नहीं है लेकिन वो पूछना था कि रोने वालों का क्या बनेगा मज़ाक़ उड़ाते हैं लोग फ़र्ज़ी कहानियों का कि सीधे-सादे से उन बुज़ुर्गों का क्या बनेगा तलाश करती हैं इस बदन की बशारतों को हक़ीर सोचों हरीस बाँहों का क्या बनेगा वो हुस्न ऐसे ही ख़र्च होता रहा तो साहिर हमारी नज़्मों हमारी ग़ज़लों का क्या बनेगा