फ़सील-ए-जाँ पे रक्खी थी न बाम-ओ-दर पे रक्खी थी ज़माने भर की बे-ख़्वाबी मिरे बिस्तर पे रक्खी थी उभर आई थी पेशानी पे नक़्श-ए-मो'तबर बन कर पुरानी फ़िक्र की ख़ुश्बू नए मंज़र पे रक्खी थी नज़र उट्ठी तो बस हैरत से हम देखा किए उस को हमारी गुम-शुदा दस्तार उस के सर पे रक्खी थी उसी को ज़ख़्म देने पर तुला था सर-फिरा सूरज मिरी तख़्ईल की बुनियाद जिस शहपर पे रक्खी थी ज़मीं पर रौशनी आती रही जाती रही लेकिन हमारी ख़ाना-वीरानी बस इक मेहवर पे रक्खी थी पसीना मेरी मेहनत का मिरे माथे पे रौशन था चमक लाल-ओ-जवाहर की मिरी ठोकर पे रक्खी थी मिरे सर पर मुसलसल आग बरसाता रहा सूरज न जाने कैसी ठंडक मेरी चश्म-ए-तर पे रक्खी थी मिरी गर्दन जो ज़ीनत बन चुकी थी क़त्ल-गाहों की कभी नेज़े पे रक्खी थी कभी ख़ंजर पे रक्खी थी बदल कर पैरहन क़दमों के नीचे आ गई 'नाज़िर' वही मिट्टी जो इक दिन दस्त-ए-कूज़ा-गर पे रक्खी थी