फ़सील-ए-शुक्र में हैं सब्र के हिसार में हैं जहाँ गुज़र नहीं ग़म का हम उस दयार में हैं हमें उजाल दे फिर देख अपने जल्वों को हम आइना हैं मगर पर्दा-ए-ग़ुबार में हैं जला के मिशअलें चलते तो होते मंज़िल पर वो क़ाफ़िले जो सवेरे के इंतिज़ार में हैं है इख़्तियार हमें काएनात पर हासिल सवाल ये है कि हम किस के इख़्तियार में हैं