फ़ित्ने अजब तरह के समन-ज़ार से उठे सारे परिंद शाख़-ए-समर-दार से उठे दीवार ने क़ुबूल किया सैल-ए-नूर को साए तमाम-तर पस-ए-दीवार से उठे जिन की नुमू में थी न मुआविन हवा कोई ऐसे भी गुल ज़मीन-ए-ख़ास-ओ-ख़ार से उठे तस्लीम की सिरिश्त बस ईजाब और क़ुबूल सारे सवाल जुरअत-ए-इंकार से उठे शहर-ए-तअल्लुक़ात में उड़ती है जिन से ख़ाक फ़ित्ने वो सब रऊनत-ए-पिंदार से उठे आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया कितने नक़ाब चेहरा-ए-असरार से उठे तस्वीर-ए-गर्द बन गया 'अकबर' चमन तमाम कैसे ग़ुबार वादी-ए-कोहसार से उठे