फ़ज़ा में नग़मगी कुछ कम हुई है हर इक लब पर हँसी कुछ कम हुई है ये माना टूट कर बरसे हैं बादल मगर क्या तिश्नगी कुछ कम हुई है अंधेरा जब से फैला है दिलों में मुसलसल रौशनी कुछ कम हुई है वही बातें वही चेहरा है लेकिन ग़ज़ल में ताज़गी कुछ कम हुई है तुम्हारे दिल से मेरे दिल की दूरी ख़यालों में सही कुछ कम हुई है उसे शिद्दत से अब भी चाहता हूँ मगर दीवानगी कुछ कम हुई है 'निसार' आवाज़ जब भी दी हवा ने गुलों की बे-रुख़ी कुछ कम हुई है