फ़ज़ा-ए-लाला-ओ-गुल में वो ताज़गी न रही वो क्या गए कि बहारों में दिलकशी न रही क़दम क़दम पे हैं छाए हुए अँधेरे से लहू के दीप जलाओ कि रौशनी न रही मिज़ाज-ए-इश्क़ ने आदाब-ए-हुस्न अपनाए दयार-ए-इश्क़ में वो रस्म-ए-बंदगी न रही मिरे ख़ुलूस-ए-वफ़ा से अबस शिकायत है निगाह-ए-नाज़ में भी शानदर-ए-दिलबरी न रही चमक उठा है तिरी याद में हरीम-ए-ख़याल शब-ए-फ़िराक़ फ़ज़ाओं में तीरगी न रही तिरी निगाह-ए-करम ज़िंदगी सँवार गई जहान-ए-दिल में वो पहली सी बरहमी न रही चलो कि हल्क़ा-ए-दार-ओ-रसन की बात करें फ़साना-ए-गुल-ओ-बुलबुल में दिलकशी न रही