फ़ज़ा-ए-सेहन-ए-गुलिस्ताँ है सोगवार अभी ख़िज़ाँ की क़ैद में है यूसुफ़-ए-बहार अभी अभी चमन पे चमन का गुमाँ नहीं होता क़बा-ए-ग़ुंचा को होना है तार तार अभी अभी है ख़ंदा-ए-गुल भी अगर तो ज़ेर-लबी रुका रुका सा है कुछ नग़्मा-ए-हज़ार अभी चमन तो ख़ैर चमन है नवा-गरों को नहीं ख़ुद अपनी शाख़-ए-नशेमन पे इख़्तियार अभी अभी उमीद की सरसों कहीं न फूली बसंत का है ज़माने को इंतिज़ार अभी तही-सुबूई किसी की ये कह रही है 'शरीफ़' निज़ाम-ए-मय-कदा बदलेगा एक बार अभी