फ़ज़ा-ए-तीरा-शबी का हिसाब करना है चराग़-ए-शाम तुझे माहताब करना है मिरी सरिश्त में दाख़िल वफ़ा की पाबंदी तिरा शिआर मुसलसल इताब करना है हमारे शानों पे है बोझ ज़िंदगी का मगर हमीं को फ़िक्र-ए-अज़ाब-ओ-सवाब करना है ज़मीं पे ज़ुल्म की खेती भी सूख जाएगी बस एक दिन उसे हुक्म-ए-अज़ाब करना है लहू का क़तरा-ए-आख़िर भी दे के ऐ 'नाज़िर' तमाम सेहन-ए-चमन को गुलाब करना है