फ़लक ने सीखा है हालात को ज़ुबूँ करना हर एक घर को किसी तरह बे-सुतूँ करना सिमट के आए न आशुफ़्तगी ज़माने की दिल-ओ-निगाह में अश्कों से कुछ सुकूँ करना हिनाई दस्त को लहरा के ख़ुश फ़ज़ाओं में ख़ुशी से लौट के आने का इक शुगूँ करना वो लौट आए तो शिकवे भी मुल्तवी होंगे हिसाब-ए-दर्द को अब और क्या फ़ुज़ूँ करना फ़सील-ए-शहर में आसेब भूल जाने का पहन के याद की तावीज़ क्या फ़ुसूँ करना न होश आए मुझे पत्थरों की बस्ती में उठा के संग मुझे साहिब-ए-जुनूँ करना जो दस्तरस में हो तज़ईन-ए-जिस्म-ओ-जान अगर किसी की याद से ही ज़ीनत-ए-दरूँ करना हुआ है ख़ून भी 'सुग़रा' का ख़्वाब बनने में कि मस्लहत ही की ख़ातिर न ख़्वाब ख़ूँ करना