फ़लक पे चाँद नहीं कोई अब्र-पारा नहीं ये कैसी रात है जिस में कोई सितारा नहीं ये इंकिशाफ़ सितारों से भर गया दामन किसी ने इतना कहा जब कि वो हमारा नहीं ज़मीं भँवर हो जहाँ आसमाँ समुंदर हो वहाँ सफ़र किसी साहिल का इस्तिआरा नहीं मैं मुख़्तलिफ़ हूँ ज़माने से इस लिए शायद किसी ख़याल की गर्दिश मुझे गवारा नहीं ख़िज़ाँ के मौसम-ए-ख़ामोश ने सदा दी है जमाल-ए-दोस्त ने फिर भी मुझे पुकारा नहीं जो रेज़ा रेज़ा नहीं दिल उसे नहीं कहते कहें न आईना उस को जो पारा-पारा नहीं मैं ज़ख़्म ज़ख़्म सही फिर भी मुस्कुराया हूँ 'ज़फ़र' ब-नाम-ज़फ़र हार के भी हारा नहीं