फ़न की और ज़ात की पैकार ने सोने न दिया दिल में जागे हुए फ़नकार ने सोने न दिया हर तरफ़ तपती हुई धूप मिरे साथ गई ज़ेर-ए-साया किसी दीवार ने सोने न दिया एक मासूम सी सूरत को कहीं देखा था फिर भी चश्मान-ए-गुनहगार ने सोने न दिया मेरे हम-साए में शायद है कोई मुझ जैसा है जो चर्चा किसी बीमार ने सोने न दिया कल मिरे शहर में इक ज़ुल्म कुछ ऐसा भी हुआ रात भर ग़ैरत-ए-फ़नकार ने सोने न दिया जागते रहने का आराम तो क्या हम को भी चैन से शिद्दत-ए-अफ़्कार ने सोने न दिया कल कुछ ऐसी ही सर-ए-बज़्म मिरी बात गिरी किसी पहलू मिरे पिंदार ने सोने न दिया एक धड़का सा लगा था कि सहर-दम क्या हो सर पे लटकी हुई तलवार ने सोने न दिया