फ़नकार ख़ुद न थी मिरे फ़न की शरीक थी वो रूह के सफ़र में बदन की शरीक थी उतरा था जिस पे बाब-ए-हया का वरक़ वरक़ बिस्तर के एक एक शिकन की शरीक थी मैं एक ए'तिबार से आतिश-परस्त था वो सारे ज़ावियों से चमन की शरीक थी वो नाज़िश-ए-सितारा ओ तन्नार-ए-माहताब गर्दिश के वक़्त मेरे गहन की शरीक थी वो हम-जलीस-ए-सानिहा-ए-रहमत-ए-नशात आसाइश-ए-सलीब-ओ-रसन की शरीक थी ना-क़ाबिल-ए-बयान अँधेरों के बावजूद मेरी दुआ-ए-सुब्ह वतन की शरीक थी