फ़राज़-ए-दार पे इक दिन सजा के देख हमें हमीं हैं अहल-ए-वफ़ा आज़मा के देख हमें हम एक नक़्श-ए-मोहब्बत हैं तेरे दामन पर मिटा सके तो ज़माने मिटा के देख हमें हमें बुझा के अंधेरों में क्यूँ भटकता है चराग़-ए-राह थे हम फिर जला के देख हमें तुझे भुलाने का वादा तो कर लिया हम ने मगर ये शर्त है तू भी भुला के देख हमें हम अहल-ए-फ़न तो शगूफ़े हैं रंग ओ निकहत के किसी गुलाब की सूरत उगा के देख हमें रुला के हम को सुना है कि तू भी रोता है हमारे सामने आ फिर रुला के देख हमें नज़र न आएँगे हम क़हक़हों की महफ़िल में जो देखना है तो आँसू बहा के देख हमें हमारे ख़्वाब-ए-बहाराँ की आबरू रख ले किसी कली की तरह मुस्कुरा के देख हमें हर एक ग़म को इसी ज़िद में भूल जाऊँगा वो कह रहे हैं कि 'रज़्मी' भुला के देख हमें