फ़र्श-ए-मख़मल पे कभी नींद न आई मुझ को इतनी रास आई मिरे घर की चटाई मुझ को बात साहिल की जो होती तो सँभल भी जाता उस ने मंजधार में औक़ात बताई मुझ को अज़्म पर मेरे मुसल्लत है जुनूँ मंज़िल का कैसे रोकेगी मिरी आबला-पाई मुझ को जिस ने जिस तरह से चाहा मुझे बदनाम किया रास आई नहीं दुनिया की भलाई मुझ को ज़ुल्मत-ए-शब में मैं तन्हा ही लड़ूँगा 'आलम' इन चराग़ों ने अगर आँख दिखाई मुझ को