फ़साना-ए-सितम-ए-काएनात कहते हैं ये अश्क-ए-ग़म तो मिरे दिल की बात कहते हैं वही निगाह कि जिस से जहाँ लरज़ता है हम उस निगाह को राज़-ए-हयात कहते हैं तुलू-ए-मेहर-ए-मुबीं तक नज़र नहीं जाती जो बे-ख़बर हैं वो दिन को भी रात कहते हैं गुल-ओ-बहार का अंजाम है जिन्हें मा'लूम चमन को दाम-गह-ए-हादसात कहते हैं हम अहल-ए-इश्क़ हैं 'शाइर' हमें ये होश कहाँ किसे इ'ताब किसे इल्तिफ़ात कहते हैं