फ़स्ल-ए-ग़म की जब नौ-ख़ेज़ी हो जाती है दर्द की मौजों में भी तेज़ी हो जाती है पानी में भी चाँद सितारे उग आते हैं आँख से दिल तक वो ज़रख़ेज़ी हो जाती है अंदर के जंगल से आ जाती हैं यादें और फ़ज़ा में संदल-बेज़ी हो जाती है ख़ुशियाँ ग़म में बिल्कुल घुल-मिल सी जाती हैं और नशात में ग़म-अंगेज़ी हो जाती है शीरीं से लहजे में भर जाती है तल्ख़ी हीला-जूई जब परवेज़ी हो जाती है बे-हद पॉवर जिस को भी मिल जाए उस की तर्ज़ यज़ीदी या चंगेज़ी हो जाती है ग़ज़लों में वैसे तो सच कहता हूँ लेकिन कुछ न कुछ तो रंग-आमेज़ी हो जाती है हुस्न तुम्हारा तो है सच और ख़ैर सरापा हम से ही बस शर-अंगेज़ी हो जाती है ज़ाहिर का पर्दा हटने वाली मंज़िल पर सालिक से भी बद-परहेज़ी हो जाती है 'रूमी' को 'हैदर' जब भी पढ़ने लगता हूँ बातिन की दुनिया तबरेज़ी हो जाती है