फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है उम्र काँटों में बस के काटी है मैं ने रो कर गुज़ार दी ऐ अब्र जैसे तू ने बरस के काटी है हो के पाबंद-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद ज़िंदगी बे-क़फ़स के काटी है सोज़-ए-उल्फ़त में ज़िंदगी मैं ने ग़ैर का मुँह झुलस के काटी है ज़िंदगी-भर रहे हसीनों में उम्र फूलों में बस के काटी है उस ने किस नाज़ से मिरी गर्दन कमर-ए-शौक़ कस के काटी है उस की हसरत है दीद के क़ाबिल जिस ने 'मुज़्तर' तरस के काटी है