फ़स्ल-ए-गुल में भी तही क्यों न हो दामन अपना बाग़बाँ अपना फ़ज़ा अपनी न गुलशन अपना जुर्म-ए-ना-शुक्र-गुज़ारी की सज़ा कुछ तो मिले अपने हाथों से लुटाया था नशेमन अपना बर्क़-बारी ही सही जश्न-ए-चराग़ाँ न सही एक लम्हे के लिए घर तो हो रौशन अपना अब तो आवाज़-ए-तनफ़्फ़ुस पे ये होता है गुमाँ जैसे मैं मर्सियाँ-ख़्वाँ हूँ सरमद-ए-फ़न अपना करूँ किस दिल से बहारों की तमन्ना 'अतहर' मैं तो फूलों से जला बैठा हूँ दामन अपना