फ़स्ल-ए-गुल में जो कोई शाख़-ए-सनोबर तोड़े बाग़बाँ ग़ैब का उस का वहीं फिर सर तोड़े दस्त-ए-सय्याद में कहती थी ये कल बुलबुल-ए-ज़ार क्या रिहाई का मज़ा है जो मिरे पर तोड़े ख़ाक भी ख़ून की जा निकली न यहाँ ऐ प्यारे बे-सबब हाए ये फ़ज़ा दून ने निश्तर तोड़े वस्ल के तिश्ना-लबों को न हो मायूसी क्यूँ दौर पर उन के फ़लक हाए जो साग़र तोड़े मेरे दिलबर को मिला दे जो कोई मुझ से 'सुरूर' अभी देता हूँ ज़र-ए-सुर्ख़ के सत्तर तोड़े