फ़स्ल-ए-गुल आई है कल और ही सामाँ होंगे मेरे दामन में तिरे दस्त-ओ-गरेबाँ होंगे सब ये काफ़िर हैं हसीनों की न सुन तू ऐ दिल चार दिन बा'द यही दुश्मन-ए-ईमाँ होंगे किस तरह जाएँगे माने' है हमें ख़ौफ़-ए-मिज़ाज ज़ुल्फ़ पुर-ख़म है तो कुछ वो भी परेशाँ होंगे गिर्या अंजाम-ए-तबस्सुम है न हँस ऐ ग़ाफ़िल ख़ून रोएँगे वही ज़ख़्म जो ख़ंदाँ होंगे याद आएगा पस-ए-मर्ग हमारा ये कमाल हाल खुल जाएगा जब ख़ाक में पिन्हाँ होंगे ख़ाना-ज़ादों को कहाँ क़ैद-ए-मोहब्बत से फ़राग़ हम वो बुलबुल हैं यहीं ख़ाक-ए-गुलिस्ताँ होंगे दौर-ए-हर-नख़्ल करेंगे सिफ़त-ए-गर्द 'नसीम' हम पस-ए-मर्ग भी क़ुर्बान-ए-गुलिस्ताँ होंगे