फ़सुर्दा-दिल है नज़रों की परेशानी नहीं जाती कि अब तस्वीर मेरी मुझ से पहचानी नहीं जाती तुम्हारी ही गली में उम्र कट जाए तो बेहतर है कि मुझ से दर-ब-दर की ख़ाक अब छानी नहीं जाती ग़ुलामी ने तुम्हारी वो अता की है मुझे अज़्मत कि शाही में भी दिल से ख़ू-ए-दरबानी नहीं जाती कहीं लाखों का गुम्बद है ब-शक्ल-ए-साएबाँ सर पर कहीं इक चादर-ए-बोसीदा जो तानी नहीं जाती पयाम-ए-मर्ग देते हैं हज़ारों हादसे फिर भी हमारी क़ौम की 'साहिल' तन-आसानी नहीं जाती