फ़ुर्सत हो तो सुन लीजे बीता हुआ अफ़्साना क्यूँ होश गँवा बैठा ये आप का दीवाना तुम ही तो तमन्ना हो हर शैख़-ओ-बरहमन की सज्दा तुम्हें करते हैं का'बा हो कि बुत-ख़ाना तूफ़ान मोहब्बत का ख़ामोश था मुद्दत से क्यूँ आज छलक उठ्ठा ये सब्र का पैमाना हम आतिश-ए-उल्फ़त में इस तौर से जलते हैं ख़ुद शम्अ हैं महफ़िल में और आप ही परवाना जब मस्त निगाहों से साक़ी ने ज़रा देखा मदहोश नज़र आया मयख़ाने का मय-ख़ाना इस दिल की ख़राबी से आजिज़ हैं मगर फिर भी रखते हैं अज़ीज़ अपना टूटा हुआ पैमाना हो अहद-ए-वफ़ा उन का या वा'दा-ए-फ़र्दा हो आता है 'शमीम' हम को बातों में बहल जाना