फ़क़ीरी में ये थोड़ी सी तन-आसानी भी करते हैं कि हम दस्त-ए-करम दुनिया पे अर्ज़ानी भी करते हैं दर-ए-रूहानियाँ की चाकरी भी काम है अपना बुतों की मम्लिकत में कार-ए-सुल्तानी भी करते हैं जुनूँ वालों की ये शाइस्तगी तुर्फ़ा-तमाशा है रफ़ू भी चाहते हैं चाक-दामानी भी करते हैं मुझे कुछ शौक़-ए-नज़्ज़ारा भी है फूलों के चेहरों का मगर कुछ फूल चेहरे मेरी निगरानी भी करते हैं जो सच पूछो तो ज़ब्त-ए-आरज़ू से कुछ नहीं होता परिंदे मेरे सीने में पुर-अफ़्शानी भी करते हैं हमारे दिल को इक आज़ार है ऐसा नहीं लगता कि हम दफ़्तर भी जाते हैं ग़ज़ल-ख़्वानी भी करते हैं बहुत नौहागरी करते हैं दिल के टूट जाने की कभी आप अपनी चीज़ों की निगहबानी भी करते हैं