फ़िक्र कीजे तो ज़मीन-ओ-आसमाँ की कीजिए बात अपनी ही नहीं सारे जहाँ की कीजिए तज़्किरा सहरा-नशीनों का भी रखिए सामने बात जब भी सकिनान-ए-गुलिस्ताँ की कीजिए ज़िंदगी को ज़िंदगी की शक्ल देनी हो तो फिर बात हमदम इम्तिहाँ दर इम्तिहाँ की कीजिए दिल में घर करना है दुनिया के तो सब से पेशतर कुछ दुरुस्ती अपने अख़्लाक़-ओ-ज़बाँ की कीजिए कुछ तो उस की जाँ-फ़िशानी का उसे दीजिए सिला याद गाहे गाहे नज़्म-ए-बाग़बाँ की कीजिए जिस ज़बाँ ने आप को बख़्शा है अंदाज़-ए-कलाम परवरिश अपने लहू से उस ज़बाँ की कीजिए