फ़िक्र में डूबे थे सब और बा-हुनर कोई न था ज़िंदगी की शाख़ पर पुख़्ता समर कोई न था गा रहे थे अपनी अपनी धुन में सब ग़ज़लें मगर 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' 'दाग़'-ओ-'हसरत' या 'जिगर' कोई न था रात-भर ज़ुल्मत में लिपटी बस्तियाँ कहती रहीं चाँद तारे कहकशाँ जुगनू क़मर कोई न था देखने में यूँ ब-ज़ाहिर सब हमारे साथ थे जब सरों पर धूप आई हम-सफ़र कोई न था ख़ून के रिश्तों की गर्मी सर्द थी चारों तरफ़ सब तसल्ली दे रहे थे चारागर कोई न था रिंद-ओ-ज़ाहिद शैख़-ओ-सूफ़ी सब के सब तिश्ना ही थे किस को देते मय-कदा जब मो'तबर कोई न था फिर ये सोचा लिख ही भेजूँ हाल-ए-दिल उस को मगर उड़ चुके थे सब कबूतर नामा-बर कोई न था ज़िंदगी-भर भीगती पलकें थीं उस की मुंतज़िर हम से बढ़ कर ख़ुद से 'ज़ाकिर' बे-ख़बर कोई न था