फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी दोज़ख़ कैसा जन्नत कैसी बदली उन की आदत कैसी उल्टी अपनी क़िस्मत कैसी हर शय में है उस का जल्वा कसरत में है वहदत कैसी आपस में ऐ गबरू मुसलमाँ नाहक़ नाहक़ हुज्जत कैसी उल्फ़त में ज़िल्लत रक्खी है इज़्ज़त कैसी हुर्मत कैसी ज़ोहद-ए-ज़ाहिद ला-हासिल है बेगारी को उजरत कैसी सुन कर मेरी सीना-कूबी बोले वो ये नौबत कैसी चश्म-ए-वहदत-ए-बीं के आगे आईने की सूरत कैसी मर जाएँगे हम फ़ुर्क़त में रह जाएगी हसरत कैसी आलम है ऐ मह-रू तुझ पर शहरों में है शोहरत कैसी उट्ठेंगे जब वो सोहबत से बरहम होगी सोहबत कैसी बे-ख़ुद हो जा मेरी सूरत ऐ सूफ़ी ये हालत कैसी दुनिया के झगड़ों से छूटे मर कर पाई फ़ुर्सत कैसी ज़ुल्फ़ों के फंदों से निकले टाली सर से आफ़त कैसी फ़स्ल-ए-गुल के आते आते सो जाती है वहशत कैसी