फ़िक्र-ए-तज्दीद-ए-रिवायात-ए-कुहन आज भी है हक़-बयानी का सिला दार-ओ-रसन आज भी है पासबानान-ए-चमन की रविश-ए-कोराना वजह-ए-रुस्वाई-ए-आईन-ए-चमन आज भी है मय-ए-पिंदार के दो घूँट की बर्दाश्त किसे था जो पहले वो बहकने का चलन आज भी है रहनुमा हैं कि सर-ए-राह अड़े बैठे हैं कारवाँ है कि सज़ा-वार-ए-महन आज भी है वक़्त के नब्ज़-शनासों से कहो तेज़ चलें ख़ुद-फ़रेबों की जबीनों पे शिकन आज भी है कर चुका है जो हर इक दौर में तिरयाक़ का काम मेरे साग़र में वही ज़हर-ए-सुख़न आज भी है वही 'महशर' जो निगाहों में खटकता ही रहा अपनी बेबाक-बयानी पे मगन आज भी है