फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन फूल हैं सहरा में या परियाँ क़तार अंदर क़तार ऊदे ऊदे नीले नीले पीले पीले पैरहन बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन हुस्न-ए-बे-परवा को अपनी बे-नक़ाबी के लिए हों अगर शहरों से बन प्यारे तो शहर अच्छे कि बन अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन मन की दुनिया मन की दुनिया सोज़ ओ मस्ती जज़्ब ओ शौक़ तन की दुनिया तन की दुनिया सूद ओ सौदा मक्र ओ फ़न मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन मन की दुनिया में न पाया मैं ने अफ़रंगी का राज मन की दुनिया में न देखे मैं ने शैख़ ओ बरहमन पानी पानी कर गई मुजको क़लंदर की ये बात तू झुका जब ग़ैर के आगे न मन तेरा न तन