फिर घड़ी आ गई अज़िय्यत की उस की यादों ने फिर शरारत की जब खुलीं गुत्थियाँ हक़ीक़त की धज्जियाँ उड़ गईं शराफ़त की सच बताओ कभी हुआ ऐसा सच बताओ कभी शिकायत की ख़ुद से अपना मिज़ाज भी पूछूँ गर मयस्सर घड़ी हो फ़ुर्सत की कितने चेहरों के रंग ज़र्द पड़े आज सच बोल कर हिमाक़त की सच से हरगिज़ गुरेज़ मत करना है अगर आरज़ू शहादत की मैं बुज़ुर्गों के साए में हूँ 'ज़ुबैर' बारिशें हो रही हैं रहमत की