फिर मयस्सर ये मुलाक़ात कभी हो कि न हो सामने बैठ के फिर बात कभी हो कि न हो आओ हम बोझ दिलों का ज़रा हल्का कर लें क्या ख़बर अश्कों की बरसात कभी हो कि न हो ये भी मुमकिन है कि मैं आप का दिल रख पाऊँ फिर से ये आलम-ए-जज़्बात कभी हो कि न हो छोड़ने वाला था दिल तेरे करम की उम्मीद डर था फिर लुत्फ़-ए-इशारात कभी हो कि न हो था इरादा कि कोई बात अधूरी न रहे क्या ख़बर फ़ुर्सत-ए-लम्हात कभी हो कि न हो प्यार के नाम पे ये ज़ख़्म भी हैं मुझ को क़ुबूल फिर मिरी नज़्र ये सौग़ात कभी हो कि न हो तुझ से मिलने का ये मौक़ा हमें क़िस्मत से मिला ऐसी दिलचस्प मुलाक़ात कभी हो कि न हो यही बेहतर है कि हम कर लें क़ुबूल अपने गुनाह ख़ुद से इस तरह मुलाक़ात कभी हो कि न हो इतना बेबस था मैं 'अंजुम' कि ज़बाँ खुल न सकी क्या ख़बर ख़त्म सियह रात कभी हो कि न हो