फिर ये कैसा उधेड़-बुन सा लगा जान-ए-ग़म-दीदा को जो घन सा लगा उस गली में जो मैं उठा गाहे पा-ए-ख़्वाबीदा मुझ को सुन सा लगा उस ने जिस वक़्त और सर खेंचा नख़्ल-ए-क़द उस का सर्व-बुन सा लगा उस के छल्ले के हैं जो गुल खाए दाग़ हर इक बदन पे हुन सा लगा आख़िर-ए-उम्र अपनी नज़रों में जामा-ए-ज़िंदगी कुहन सा लगा कश्ती-ए-चश्म-ए-तर खिंची है उधर है जिधर तार-ए-अश्क गुन सा लगा यार-ए-धर्मातमा का प्यार के साथ बोसा देना भी मुझ को पुन सा लगा जब दिल-सोख़्ता पे ज़ख़्म-ए-मिज़ा नज़र आया वो साफ़ पुन सा लगा मैं सुना 'मुसहफ़ी' को पीरी में मुझ को ख़ेले वो ख़ुश-सुख़न सा लगा