फिरा किसी का इलाही किसी से यार न हो कोई जहान में बरगश्ता-ए-रोज़गार न हो हम उस की चश्म-ए-सियह-मस्त के हैं मस्ताने ये वो नशे हैं कि जिस का कभी उतार न हो जहान में कोई कहता नहीं ख़ुदा-लगती वो क्या करे जिसे दिल पर भी इख़्तियार न हो न फाड़े दामन-ए-सहरा को क्यूँ कि दस्त-ए-जुनूँ रहा जब अपने गरेबाँ में एक तार न हो न खेल जान पर अपनी तू ऐ दिल-ए-नादाँ ख़ुदा को याद कर इतना तू बे-क़रार न हो न भूल ज़ोहद पे लज़्ज़त से बख़्शिश-ए-हक़ की वो बे-नसीब है जब तक गुनाहगार न हो तुम्हारे सर की क़सम खा के दर्द दिल का कहूँ जो मेरे लिखने का यूँ तुम को ए'तिबार न हो जनाब-ए-शैख़ जी साहिब मैं एक अर्ज़ करूँ अगर मिज़ाज-ए-मुक़द्दस पे नागवार न हो जनाब रिंदों से मिलते तो हैं पे डर है मुझे कि दुश्मनों का किसी दिन वहाँ अचार न हो बहुत है ख़ेमा-ए-गर्दूं के फूँकने को तो 'ऐश' इस आह-ए-तुफ़्ता जिगर में असर हज़ार न हो