फिरती है जुस्तुजू में नसीम-ए-वतन कहाँ अब मैं ख़िज़ाँ-रसीदा कहाँ और चमन कहाँ इस दौर में वफ़ा की रुसूम-ए-कुहन कहाँ मंसूर भी अब आए तो दार-ओ-रसन कहाँ आता है कौन हिज्र में ऐ ज़ौक़-ए-इंतिज़ार दौर-ए-ख़िज़ाँ में सद्र-नशीन-ए-चमन कहाँ मेरे ग़ुरूर-ए-इश्क़ में बेगानगी सही लेकिन तिरी निगाह का बेगाना-पन कहाँ ख़ुद ही मिटा सके तो मिटा ऐ रज़ा-ए-दोस्त ढूँडे कोई वसीला-ए-दार-ओ-रसन कहाँ मैं और तेरी अंजुमन-ए-नाज़ की तलाश मेरे लिए वो जन्नत-ए-सर्व-ओ-समन कहाँ गो ज़मज़मे हज़ार हैं लेकिन सिवाए इश्क़ हासिल किसी से लज़्ज़त-ए-काम-ओ-दहन कहाँ शीराज़ा-बंद-ए-दैर-ओ-हरम है मिरा नियाज़ जो मैं न हूँ तो शैख़ कहाँ बरहमन कहाँ जेब-ए-समन दरीदा गरेबान-लाला चाक महफ़ूज़ उस नज़र से कोई पैरहन कहाँ जो उन की रहगुज़र में पड़े थे पड़े रहे जाते 'ज़फ़र' ये ख़ल्वतियान-ए-चमन कहाँ