फूलने-फलने लगे हैं साहब-ए-ज़र और भी तंग हो जाएगी धरती मुफ़लिसों पर और भी ये ज़मीं ज़रख़ेज़ होगी ख़ून पी कर और भी खेतियाँ उगला करेंगी लाल-ओ-गौहर और भी हर ज़माने में सुबूत-ए-इश्क़ माँगा जाएगा लाल माओं के चढ़ेंगे सूलियों पर और भी फूलते-फलते हैं जज़्बे दर्द के माहौल में ज़ख़्म खाएँ तो निखरते हैं सुख़न-वर और भी आफ़्ताब उभरा है जिस दिन से नई तहज़ीब का हो गया तारीक इंसाँ का मुक़द्दर और भी जब चली तहरीक ता'मीर-ए-वतन की दोस्तो हो गए बर्बाद कुछ बस्ते हुए घर और भी जिस क़दर बाहर की रौनक़ में मगन होता गया बढ़ गई बे-रौनक़ी इंसाँ के अंदर और भी मैं बनाता जा रहा हूँ और भी कुछ आइने वक़्त बरसाता चला जाता है पत्थर और भी बस्तियों पर हादसों की चाँद-मारी के लिए बढ़ रहे हैं औज की जानिब सितमगर और भी मुनफ़रिद उस्ताद 'दानिश' भी हैं ग़ालिब की तरह यूँ तो दुनिया में हैं 'नाज़' अच्छे सुख़न-वर और भी