फूलों को शर्मसार किया है कभी कभी काँटों से हम ने प्यार किया है कभी कभी मौक़ूफ़ चाक-ए-जेब-ओ-गरेबाँ ही पर नहीं दामन भी तार-तार किया है कभी कभी मैं मुज़्तरिब रहा हूँ ये सच है फ़िराक़ में उन को भी बे-क़रार किया है कभी कभी दिल का दिया जला के ख़ुद अपने ही ख़ून से शब शब-भर इंतिज़ार किया है कभी कभी तन्हा शब-ए-फ़िराक़ में तार-ए-नफ़स के साथ तारों का भी शुमार किया है कभी कभी ऐसा भी वक़्त आया है अक्सर हयात में सर अपना सू-ए-दार किया है कभी कभी सय्याद मेरे ताइर-ए-दिल ने क़फ़स को भी नालों से पुर-बहार किया है कभी कभी